आ• सुरेश जी पत्तार 'सौरभ' की कलम से  

२६ - २७  उम्र में साहित्यिक डालों की भी मुझे ठीक जानकारी नहीं थीं। आज पहली साहित्यिक सीडी चढ रहा हूँ। भले ही नवीन की उम्र कम रही होगी। इनकी रचना समीक्षा में कुछ का मन सकुचाया होगा, फिर भी छोटी मूर्ति
में बडी कीर्ति छिपि रहती है। इसकी अंदाजा आप लगाइए मैं समीक्षा करता हूँ। १९९१ में महाराणा के गढ में जन्मे नवीन जी भोर नमन के साथ जगाते-जगाते साहित्य का तलवार प्रथम रचना में चला रहे हैं। अर्थात् रचना में नवीन जी जगाते जगाते अलसा छोडते, उल्लास सहित कर्मट  जीवन अपनाकर शफलता की ओर बढने का संदेश के साथ लोभ, मोह, थोखे के जाल में न फंसने की चेतावनी भी देते हैं शिल्प शुंदर सुडौल और आकर्षक है। छंद विधान कौनसा है पता नहीं, लेकिन बीच में दोहों से रचना और भी निखर उठी है और आकर्षक,भावपूर्ण है।
     दूसरी रचना में राजस्थानी साजन और परदेशी प्रियतमा की बातची आकर्षक,भावपूर्ण और भारतीय संस्कृति की गरिमा बढानेवाली रचना है। वर्तमान में हम वादेशी संस्कृति की ओर आकर्षित हो कर अंधानुकरण कर रहे हैं। अंधानुकरण करनेवालों को और हमें  भी भारतीय रीति, सभ्यता, संस्कृति आदि जानने की ओर रचना खींचती। दोनों रचना भावपूर्ण, आकर्षक शिल्प विधान की सुढौल रचनाएँ। भविष्य इनका साहित्य क्षेत्र में उज्वल है। परिश्रम पर, सभ्यता व संस्कृति, राष्ट्रीयता पर भरोसा कर के साहित्यिक क्षेत्र सिखर सिरोमणी के रूप में देखने की इच्छा के साथ शुभ कामना अर्पित करता हूँ।
समीक्षक - आ• सुरेश जी पत्तार 'सौरभ'
Utkarsh Kavitawali
Writes Review By Suresh Pattar Saurabh