बहर : 122-122-122-122 

(मुत़कारिब मसम्मन सालिम)

जिन्हें  हम  पलक  पे   बिठाने लगे हैं
उन्हें   ठीक   दिल  मे  बसाने   लगे हैं

कभी  सामने   से  अगर    हैं   गुजरते
बना    घूँघटा,  वो     सताने     लगे हैं

अभी  तक  हुआ क्यों न दीदार उनका
तलब    में   नयन  जल बहाने लगे हैं

किये    है  मुहब्बत   तभी    से  हमें वो
जता   कर    पराया     जलाने  लगे हैं

करूँ  क्या शिकायत, मिरे हमसफ़र से
कदम  - दर -  कदम आजमाने लगे हैं

चमन  ये  बहारें, खिज़ा    तो   नहीं   हैं
रहो    दूर  क्यों   दिन   सुहाने   लगे हैं

हुआ    इश्क    जबसे, वहीं    आरजू  हैं
न  “उत्कर्ष”   यूँही   जताने    लगे   हैं
हिंदी पत्रिकाओं, एवं हिंदी साहित्यिक संस्थाओं को सहायतार्थ यथोचित अनुदान दें। संस्था अथवा पत्रिका का नाम अनुदान देते समय टिप्पणी में उल्लेखित करें। अधिक जानकारी के लिए सम्पर्क करें। ☎ +919549899145


उत्कर्ष गजल