उत्कर्ष दोहावली
राधा जपती कृष्ण को, कृष्ण राधिका नाम
प्रीत निराली जग कहे, रही प्रीत निष्काम
राम नाम ही प्रीत है, राम नाम वैराग
राम किरण है भोर की, रे मानस मन जाग
मन की मन में राखि ले,जब तक बने न काम
निज कर्मन पर ध्यान दे, भली करेगो राम
कर्म बिना कोई कहाँ, आड़े आता राम
कर्म करे ते ही बने, जग में सबरे काम
प्यास जगा ले चाह की, लक्ष्य बना ले नीर
कर्मो की नैया बना, पहुँच पथिक फिर तीर
देखे का टीका करें, लोभी मन पा भोग
समय गंवाते व्यर्थ ही, उपजाते नित रोग
लाठी जिसकी ठोस है, उसका सब संसार
देख सुमन घर आपणो, यही राम दरबार
मौन धरे मौनी यहाँ, प्रेमी धारे जोग
सुमन धरे मुस्कान को, लोभी धारे सोग
तेवर तेरे तो सुमन, रहे सदा से पुष्ट
हाल भले जैसे रहे, कभी न होना रुष्ट
अच्छे से जाना नही, अभी मित्र, मैं आप
तब तुमने कैसे मुझे, लिया सूत से नाप
नियति जीव की भिन्न है,भिन्न जीव का कर्म
तन, मन को जोड़ा तभी, बना जीव का धर्म
अंतस में वह ही बसा, उसका सब संसार
मन दर्पण को देख तो, वह सबका आधार
नैनन में नींदे जगी, लेखन में आंनद
दोनों की टक्कर हुई,गलत सलत सब छंद
मैं,मुझको अच्छा लगा,मुझसा बोलो कौन
पूर्ण रहा जो मैं यहाँ, बाकी सब है पौन
श्याम नाम जपते चलो,यही जीव आधार
भव बाधा हरता यही,करता भव के पार
भुजबल हाथी से अधिक,साहस सिंह समान
चाहत चींटी सी रखे,धरती पुत्र किसान
जित दीखे नारी "सुमन", करें उते इजहार
नजर छलावा भर रहा,नाम धरे यह प्यार
चम-चम चमकी चंचला,घर आये घन श्याम
हर्षित बृज मन हो गया,हर्षित चारो धाम
“मरुधर” मेरा साजना,अरु ही मेरी जान
मरुधर प्यारे पर करे,“सुमन” निछावर प्रान
स्वारथ बस पूजत रहो,पीटत रहो लकीर
तब कैसे बाधा हरें,कहो सुमन,रघुवीर
काया से जीवन जुड़ा,जीवन मन का तार
काया है बीमार यदि,तब मन भी लाचार
रात अँधेरी गम भरी,अंधकार चहुँ ओर
चन्द्र छिड़क तू चांदनी,बिन बोले बिन शोर
अथाह अम्बुदि ज्ञान का,अम्बर जैसी सोच
पर्वत सम निश्चय रखो,धरती सम रख लोच
भूल हुई जो भूल से,भूल सदा ही माफ
भूल करें जो बूझकर,भूल स्वयं इक पाप
सबसे ही लेखन जुड़ा,सबसे मिलता हर्ष
सबसे शिक्षा पा बना,आज यह “उत्कर्ष”
मन बदला जग देखकर,मन की बदली सोच
बदल स्वयं बदले सभी,बदल,त्याग संकोच
गौरैया चिड़िया करें,चहक - चहक कर शोर
नित्य सुबह सुनकर हृदय,होता “सुमन” विभोर
रोशन सारा जग किया,फीके दिनकर,चन्द्र
ओज गुणी, मधुरस भरा,रूप तुम्हारा मन्द्र
भोज पात्र को तुम रखो,सदा उच्च स्थान
भोजन का ऊँचा रहा,मनुज,जगत में मान
मरुधर माटी कंचनी,जाये वीर अनेक
केसरिया घर घर मिले,लिए इरादा नेक
औरन कूँ उपदेश दें, खुद देमें नहि ध्यान
ऐसें ही सब कर रहे, नूतन जग निर्माण
लाल वसन,मन मंजरी,लिखती प्यारा लेख
जबसे देखा है तुम्हे, देख रहा कर रेख
देख मुसीबत जप रहे, राम नाम अविराम
पहले जो जपते अगर, तो डर का क्या काम
तन को धोता नित्य ही,मन पर दिया न ध्यान
तब कैसे भव पार हो,रे ! मूरख नादान
कड़क धूप हो जेठ की, या सर्दी का शीत
लगा रहा निज काज में, त्याग स्वयं से प्रीत
जगद्गुरू श्री कृष्ण अरु, मर्यादित श्री राम
यश, बल,जीवन,हो सुफल, जो ध्यावत हरि नाम
जगत गुरू उनको कहें,वह ही राजाराम
क्षीर बसे, लीला रचें,सुमन जपो हरि नाम
श्याम वर्ण,पट पीत हैं, शंख, गदा ले हाथ
कमल नयन, प्रिय साँवरे,रहो सदा तुम साथ
भारत का कण कण कहे,जपो कृष्ण अरु राम
आवश्यक जो रूप हो,करें उसी सम काम
मात पिता चरनन तले, चार धाम त्रय लोक
सुमन कहीँ मत जाइये, नित्य लगा इत ढोक
सोलह सोलह पर लिखो,चार चरण धर ध्यान
चौपाई का है यही, मित्रो छंद विधान
शब्द एक पर हैं, अर्थ शब्द के मीत
श्लेष अलंकृत कर रहा, वहाँ अर्थ है नीत
एक वर्ण का आगमन, जब हो बारम्बार
अलंकार अनुप्रास वह, करे काव्य श्रृंगार
दुमदार
"दोहा" के अंदर बसा, पूरण कविता सार
शिल्प रहा मनभावना, चार चरण आधार
रहा दोहा जग प्यारा
चले यह सबसे न्यारा
मैं "भारत" का अंश हूँ,कहते पाकिस्तान
पर भारत से गुण नही,ना भारत सा मान
बना आतंकी अड्डा
खोदता खुद को गड्ढा
प्रेमभाव का लोप है,समरसता नहि शेष
जाने किस पथ चल पड़ा,मेरा प्यारा देश
देख नित नए नजारे ।
भाई - भाई को मारे ।।
नवीन श्रोत्रिय “उत्कर्ष”
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Doha Chhand : Utkarsh Kavitawali |
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