गजल : प्रेम पढ़ता रहा नित्य ही
[Gazal : Prem Padta Raha Nitya Hi]
बह्र : 212 212 212 212
प्रेम पढ़ता रहा नित्य ही मीत मैं
सीख पाया नहीं बाद भी प्रीत मैं
हार से हार कर हारता ही गया
पर न जाना कभी हार क्या जीत मैं
नैन आगे गलत देख बोला नहीं,
मूक बनता गया देख जग रीत मैं
खोज करता गया नित्य नव लीक पर
बाद भी कर न पाया कभी नीत मैं
लालसा रोज “उत्कर्ष” होती गयी
स्वाति की बूँद जीवन बना पीत मैं
✍नवीन श्रोत्रिय “उत्कर्ष”
श्रोत्रिय निवास बयाना
प्रेम पढ़ता रहा नित्य ही |
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