कृष्ण सुनो अरदास मम, चाह तुम्हारा साथ
लोभ, द्वेष उर से हरो, तारो भव से नाथ
दारू कब घी सम रही, पी कर भरो न जोर
बाद गलाती जिस्म ये, है बीमारी घोर
अलग -अलग उपनाम है,अलग-अलग अंदाज
करना मत मधुपान तुम,यह दुर्जन का काज
कभी गिराती कीच में,कभी सभा के बीच
चखते जो इसका मजा,रहे गला खुद भींच
छयकारी औजार ये, करता काम तमाम
धारण जो इसको करे, खो देता निज नाम
घर, पैसा, तुम झोंक कर, करते है मधुपान
पर सोचो, किसने यहाँ, पाया पीकर मान
मान गिराती साथ ही, गिरती काया जान
गुर्दा गलता मान ले, मत कर मधु का पान
दारू भारी हो रही, दूध दही पर आज
तब कैसे होवे कहो, उन्नत कुशल समाज
खरबूजे की ही तरह, बदल रहे अब रंग
शौक चढ़ा मधुपान का, देख हुआ मैं दंग
उत्कर्ष दोहावली |
7 Comments
ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 09/04/2019 की बुलेटिन, " लड़ाई - झगड़े के देसी तौर तरीक़े - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंसादर आभार आदरणीय, मैं भी आता हूँ उधर
हटाएंलाजवाब दोहे
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आदरणीय, आपकी प्रतिक्रिया से मन प्रसन्न हुआ ।
हटाएंलाजवाब दोहे
जवाब देंहटाएंपुनश्चः हार्दिक आभार आदरणीय
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