समीक्षका : सा• वाणी बरठाकुर "विभा"
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वाणी बरठाकुर विभा जी |
आदरणीय नवीन शर्मा श्रोत्रिय उत्कर्ष जी से आज सम्पूर्ण रूप से परिचित होकर बहुत अच्छा लगा । इतने कम उम्र में आप साहित्य क्षेत्र में इतने आगे बढ़ता हुआ देख कर मुझे बहुत अच्छा लगा । भगवान् से प्रार्थना है कि आप और आगे बढ़े । आज कुञ्ज में दिए गए आपके रचनाओं पर समीक्षा करने की प्रयास करती हूँ । कुञ्ज में दिए गए आप के पहली रचना मानव जीवन को लेकर शिक्षाप्रद शानदार रचना । यहाँ आपने लिखें है कि दिनकर निकल आते ही आलस त्याग करना है । कर्म ही सबसे बड़ा है । कर्म के आगे भाग्य बड़ा नहीं है । फल की आशा छोड़कर कर्म करते रहना चाहिए तभी मंजिल मिलेंगे । मोह से दूर रहकर बुरे मार्ग को तज कर आगे बढ़ना है । बहुत ही सार्थक रचना ।
आपके दूसरी रचना राजस्थानी ढोला और उसकी प्रियतमा के बीच का वार्तालाप । इस देश में प्रीत की रीत है । ये मरूधर वीरो की खान है । यहाँ हिन्दू मुस्लिम सभी मिलकर रहते है । यहाँ कहीं दुंदुभी बजाकर सबके मन ललचाय । इस देश में जान भले ही चले जाये मगर सुन्दर बोल और करे सबका आदर मान । साजन के देश में भोर सुहानी के साथ चातक, कंजा, मोर के मधुर सुनने को मिलते है । यहाँ आपने राजस्थान की सुन्दरता और लोगो के परिभाषा एक प्रेमिक प्रेमिका के वार्तालाप के जरिए शानदार कौशल के लिखें है ।
आपके उज्ज्वल भविष्य की कामना करते हुए...........वाणी बरठाकुर "विभा"
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