छंद : महाशृंगार
प्रकृति सब झूम उठी है आज
सुगंधित तन मन आँगन द्वार
बिछाये पलकें बैठी देख
रत्नगर्भा करने श्रृंगार
पालना डाले द्रुम दल और
पुष्प ने पहनाया परिधान
झुलाती झूला जिसको वात
कोकिला करती है मृदु गान
जलज खिलकर यों ढकता ताल
मान लो देता वह संकेत
समेटो अपने कष्ट मनुष्य
बढ़ो आगे, करके सब चेत
लगे हैं पल्लव, पुष्प नवीन
हुआ जन मन को हर्ष अनन्त
पहन कर पीले - पीले वस्त्र
खुशी लाये ऋतुराज बसंत
नवीन श्रोत्रिय उत्कर्ष
+91 95 4989-9145
14 Comments
आपकी लिखी रचना "मुखरित मौन में" शनिवार 23 फरवरी 2019 को साझा की गई है......... https://mannkepaankhi.blogspot.com/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंजी, हार्दिक धन्यवाद, जी हम अवश्य पढ़ेंगे
हटाएंबहुत सुन्दर सृजन ।
जवाब देंहटाएंसा• भारद्वाज जी सराहना के लिये कृतज्ञ हूँ ।
हटाएंवाह
जवाब देंहटाएंपरमादरणीय श्री जोशी जी, रचना पर अपनी अमूल्य प्रतिक्रिया द्वारा मेरा उत्साहवर्धन करने के लिए हार्दिक आभार
हटाएंउत्कर्ष जी की उत्कृष्ट प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंअपनी स्नेहिल टिप्पणी द्वारा मेरी रचना को सुसज्जित करने के लिये आपका आभार आदरणीया
हटाएंकाश ! हम प्रदूषित और घुटते महानगरों के निवासियों के जीवन में भी कभी ऐसा मदमाता, ऐसा सुवासित, बसंत आए !
जवाब देंहटाएंनमन आभार आदरणीय, अपनी स्नेहिल प्रतिक्रिया द्वारा मेरा उत्साहवर्धन करने के लिये मैं आपका आभारी हूँ ।
हटाएंबहुत ही जीवंत वर्णन बसंत का प्रिय नवीन जी | काश द्र्हरा पर ये बसंत अक्षुण हो और साथ में आपकी लेखनी का बसंत यूँ ही खिला रहे | सस्नेह शुभकामनायें सुंदर लेखन के लिए |
जवाब देंहटाएंस्नेहिल प्रतिक्रिया के लिये दिली शुक्रिया रेणु जी..
हटाएंवाह, अति उत्तम
जवाब देंहटाएंजी सादर आभार
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